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आज समय के साथ उत्तराखंड के युवा अपनी संस्कृति व बोली भाषा के प्रति काफी जागरूक दिख रहे हैं किंतु अपनी भाषा में बनी फिल्मों के लिए उनमें वो क्रेज नहीं है जो अन्य क्षेत्रीय भाषा के लोगों का है। क्षेत्रीय भाषाओं में फिल्में बनाने का मकसद यही होता है कि अपने लोग ज्यादा से ज्यादा अपनी संस्कृति व भाषा को जान सकें। आज ऐसी ही एक फ़िल्म कन्यादान के विषय मे हम आपको बताने जा रहे है जो पहाड़ के उस सिपाही की कहानी है जो फौज की नौकरी में बॉर्डर पर है और पीछे से उसकी पत्नी छोटी सी अपनी बेटी को छोड़ इस संसार से विदा हो जाती है पर पिता घर नहीं आ पाते। ऐसे में बच्ची के दादा उसके भविष्य के लिए उसे उसकी बुआ के घर छोड़ने जाते हैं किंतु नियति को तो कुछ और ही मंजूर है। रास्ते मे दादाजी एक पत्थर से टकराते हैं और गिर कर वहीं परलोक सिधार जाते है। बच्ची छिटकर कर कहीं दूर गिर जाती है। वहीं कहीं पास ही किसी लुहार का घर है जो बच्ची के रोने की आवाज सुनकर उस तरफ जाते हैं और बच्ची को अकेला पाकर उसे अपने घर ले आते है और उसका पालन पोषण करने लगते हैं। उसके राजपूत पिता को पता लगता है कि उसका परिवार सारा ही खत्म हो चुका है तो वो घर नहीं आता। लड़की बड़ी होती है तो उसे एक राजपूत लड़के से प्यार हो जाता है। बस यहीं से फ़िल्म क्लाइमेक्स में जाती है। आगे क्या होगा ये जानने के लिए आपको सिनेमा हॉल में जाकर फ़िल्म देखनी होगी। जात पात का बेहतरीन चित्रण और फौजी के विकट जीवन पर आधारित यह फ़िल्म बहुत ही बेहतरीन है।

फ़िल्म के मुख्य किरदार में राजेश मालगुडी, शालिनी शाह, गौरव गैरोला, रमेश रावत, गीता उनियाल, रीता भंडारी, रणबीर चैहान, मदन डुकलांन, दिनेश बौराई, मुनालश्री बिक्रम बिष्ट, नवल सेमवाल, निशा भंडारी, सचिन शाह, फ़िल्म में वीरेंद्र नेगी राही ने अपने बेहतरीन संगीत से चार चांद लगा दिए है। अगर आप अपनी संस्कृति को बढ़ावा देना चाहते हैं या उसको जानना चाहते हैं तो उसके लिए गढ़वाली व कुमाऊनी में बनी फिल्में सिनेमा हॉल में देखनी चाहिए।

रिपोर्ट द्वारिका चमोली

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